नई दिल्ली, 31 अक्तूबर 2009: 25 साल में जमाना कितना बदल गया लेकिन आम हिंदुस्तानियों के दिलो-दिमाग में इदिरा गांधी का नाम उसी तरह छाया हूआ है जैसे 25 साल पहले था।.
नई दिल्ली, 31 अक्तूबर 2009: 25 साल में जमाना कितना बदल गया लेकिन आम हिंदुस्तानियों के दिलो-दिमाग में इदिरा गांधी का नाम उसी तरह छाया हूआ है जैसे 25 साल पहले था। कई लोग तो उन्हे महात्मा गांधी से भी ज्यादा मशहूर मानते हैं। ऐसा नहीं है कि वे कोई संत थी या फिर युग निर्माता, लेकिन देश की आन-बान और शान को उन्होने जिस तरह बढ़ाया वैसा पहले कभी नहीं हुआ। इंदिराजी की शान के सबसे बुलंद झंडे हैं सन् 71 की पाकिस्तान से लड़ाई में जीत और सन् ‘74 पहला पोखरन परमाणु परीक्षण। सन् ‘71 की लड़ाई ने इस देश के इतिहास को ही नहीं बल्कि भूगोल भी बदल गया। दुनिया के नक्शे पर एक नया देश बंग्लादेश का ज्नम हुआ और पाकिस्तान की दोराष्ट्र की नींव पर टिकी बुनियाद झूठी साबित हो गई।
इस कारनामे के पीछे थी इंदिरा गांधी जिन्होने अमेरिका तक की धमकी को उस जंग में धता बता दिया था। ये उनके लिए फैसले का वक्त था। उन्होने सोबियत संघ से 20 वर्षीय मैत्री समझौता कर लिया। ये भारतीय कूटनीति का नया चेहरा था। पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह कहते हैं कि इंदिरा ने पहले बांग्लादेश को लेकर अंतरराष्ट्रीय माहौल बनाया। कहा कि दस लाख लोग भारत में आ गए हैं। निक्सन आईसोलेट हो गये तब उन्होंने कार्रवाई शुरू की। आखिर तक वो कहती रहीं कि ये वहां के लोगों की जीत है। भारत ने बांग्लादेश को मुक्त कराने की कार्रवाई जिस तेजी से की उसे देखकर दुनिया दंग रह गई। संयुक्त राष्ट्र या अंतरराष्ट्रीय समुदाय कोई हस्तक्षेप करता इससे पहले ही सेनाएं वापस आ गईं। अमेरिका का सातवां बेड़ा खड़ा ही रह गया।
लेकिन भारतीयों की नजर में वे साक्षात देवी बन गईं। एक ऐसी देवी जिसने पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। विपक्ष के नेताओं ने इंदिराजी की तारीफ की। हजारों साल तक भारत से जंग लड़ने का ऐलान करने वाले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को शिमला में समझौते की मेज पर आना पड़ा। पाकिस्तान सीमा विवाद का हल बातचीत के शांतिपूर्ण ढंग से करने पर राजी हो गया। पाकिस्तानी सेना के 93 हजार युध्दबंदी पूरी दुनिया में भारतीय शक्ति की गवाही दे रहे थे। देश में हर तरफ इंदिरा नाम की जयकार थी। विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी तुलना दुर्गा से करके साफ कर दिया कि वे प्रतिद्वंद्वियों से मीलों आगे निकल गई हैं। पूरा देश उनके पीछे खड़ा था।
पांच साल पहले जब उन्हे सन् 1966 में प्रधानमंत्री चुना गया था तो हालात बिल्कुल उलट थे। पार्टी में उन्हे कद्दावर विरोधियों का सामना करना पडा। मोरारजी भाई देसाई उनके बड़े विरोधी थे। कांग्रेस के बड़े नेताओं ने इदिरा गांधी को अनुभवहीन मान लिया था लेकिन कुछ ही सालों में उन्होने साबित कर दिया कि वे राजनीति में कितनी माहिर थी। सन् ‘67 के चुनाव में 10 राज्यों में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई थी। ये इंदिरा गांधी के लिए चुनौतियों के दिन थे। कांग्रेस में साल 1969 में विभाजन भी हो गया। पार्टी दो धड़ों में बंट गई। जो इंदिरा गांधी के साथ थे उन्हे इंडिकेट कहा गया और जो विरोधी और ज्यादा तादाद में थे उन्हे सिंडिकेट कहा गया। सिंडिकेट खेमे में मोरारजी देसाई जैसे कद्दावर नेता थे। लेकिन इंदिराजी ने कम्यूनिस्टों और दूसरे दलों की सहायता से सरकार बचा लिया। उन्होने इस दौर में कुछ ऐसे फैसले लिए जो बड़े ही साहसिक थे। उन्होने बैंकों, बीमा कंपनियों और खानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और राजाओं के प्रविपर्स खत्म कर दिए। उन्होने साल 1971 में हुए चुनाव में गरीबी हटाओं का नारा दिया जो आम लोगों की जुबान पर चढ़ गया। सन् ‘71 के चुनाव में इंदिरा जी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने स्पष्ट वहुमत हासिल किया और फिर ये तय हो गया कि मुल्क किसके पीछे खड़ा है।
अगले कुछ साल उपलब्धियों के रहे और 1974 में पोखरण में परमाणु विस्फोट करके उन्होंने पूरी दुनिया को चौंका दिया। इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ नारे ने 1971 के बसंत में ऐसी बयार उठाई जो उनके विरोधियों को तिनके की तरह उड़ा ले गई। पहली बार लोकसभा के चुनाव विधानसभा चुनाव से पहले हो रहे थे। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवीपर्स खत्म कर देने जैसे कदमों को अदालती जंजीर में कसने की कोशिश के खिलाफ इंदिरा ने कार्यकाल खत्म होने के 14 महीने पहले ही लोकसभा भंग करने की सिफारिश कर दी थी। मार्च में हुए इस चुनाव में गरीबी हटाओ का नारा मतदाताओं के सिर जादू की तरह चढ़ गया। इंदिरा ने गरीबी और बेरोजगारी से आजाद भारत के सपने की ऐसी बड़ी लकीर खींची की बाकी सभी छोटे पड़ गए।
इस चुनाव में इंदिरा ने दिन.रात एक कर दिया। वे इंदिरा कांग्रेस का अकेला चेहरा थीं। प्रचार के दौरान उन्होंने हजारों मील की दूरी तय की और 300 सभाओं को संबोधित किया। गरीबों, भूमिहीनों, मुस्लिम और दलित वर्ग का पूरा वोट इंदिरा कांग्रेस के खाते में गया। इंदिरा गांधी को 352 सीटों के साथ दो तिहाई बहुमत मिला। संगठन कांग्रेस 16 सीटों पर सिमट गई। इंदिरा के सामने अब कोई चुनौती नहीं थी। कहा जाने लगा कि मंत्रिमंडल में वे अकेली मर्द हैं। हर उपलब्धि के साथ उनका कद पहले से ऊंचा होता गया।
जब 1974 में भारत ने विकसित देशों के दबाव को दरकिनार करके पोखरण में पहला परमाणु विस्फोट किया तो दुनिया दंग रह गई। दक्षिण एशिया में इंदिरा के नेतृत्व में एक ऐसी शक्ति का उदय हुआ था जिसकी ओर कोई आंख उठाकर नहीं देख सकता था।
लेकिन इसी बीच देश में हालात भी बदल रहे थे। गरीबी हटाओं का जो नारा इंदिरा गांधी की सत्ता को निर्विवाद बना गया था वो जमीन पर नहीं उतर रहा था। विपक्षी संगठित हो रहे थे।
देश के कई हिस्से में आंदोलन खड़े होने लगे। देश में अव्यवस्था फैलने लगी थी। मजबूरन इंदिरा गांधी को आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी जिससे हालात और बेकाबू होने लगे। यूं, जमीन पर प्रशासन पहले की तुलना में ज्यादा चाकचौबंद होने लगा। देश ने आर्थिक मोर्चे पर भी तरक्की की। लेकिन आपातकाल का संदेश जनता में नकारात्मक गया। इसे विपक्ष ने काफी जोरशोर से भुनाया। नतीजनत सन् 1977 के आमचुनाव में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। इंदिरा गांधी अपना सीट रायबरेली भी हार गई। इंदिरा गांधी को बाद में इसका अफसोस भी हुआ।
1978 के उपचुनाव में वो फिर लोकसभा सदस्य बन गईं। उधर जनता पार्टी के नेताओं में इंदिरा विरोध के अलावा किसी बात पर सहमति नहीं थी। जल्द ही ये कुनबा बिखरने लगा। ‘77 की संपूर्ण क्रांति एक खिचड़ी विप्लव साबित हुआ। इंदिरा को जेल में डालना जनता पार्टी सरकार को और महंगा पड़ा। इंदिरा को इससे काफी सहानुभूति मिली। खासतौर पर जब अदालत में उनके खिलाफ कोई आरोप ठहर नहीं सका। वे अब फिर जनता से मुखातिब थीं। दलितों के नरसंहार के बाद बिहार के एक गांव बेलछी पहुंचने के लिए उन्होंने हाथी से नदी पार की। अब वे इमरजेंसी लगाने के फैसले के लिए सार्वजनिक रूप से गलती भी मान चुकी थीं।
अपने अतर्रविरोधों के कारण जनता सरकार गिर गई। अगला आम चुनाव सामने था।1980 में चुनावी मैदान फिर सज गया। सिर्फ ढाई साल बाद इंदिरा ने बहुमत का दिल जीत लिया। 1980 के चुनाव में कांग्रेस को 351 सीटें मिलीं। लगभग उतनी ही जितनी इंदिरा 1971 में जीतकर लाई थीं।
1980 में इंदिरा को ऐतिहासिक जीत हासिल हुई। अमेठी से चुनाव जीतकर संजय गांधी भी लोकसभा पहुंच गए। लेकिन कोई नई शुरुआत होती इसके पहले ही 23 जून 1980 को संजय गांधी की हवाई दुर्घटना में मौत हो गई। इंदिरा इस हादसे से टूट गईं। अब उन्हें केवल बड़े बेटे राजीव का सहारा था। राजीव पायलट की नौकरी छोड़ मां को मदद देने के लिए राजनीति में आ गए। 80 के दशक की शुरुआत के साथ ही भारत झंझावातों में फंसने लगा था। असम में बांग्लादेशी शरणार्थियों के खिलाफ हिंसक आंदोलन शुरू हुआ। मेरठ, मुरादाबाद और अलीगढ़,भिवंडी और जलगांव में सांप्रदायिक दंगे हुए। कश्मीर में पहली बार अलगाव की मांग उठी। कुल मिलाकर देश चौतरफा समस्याओं में घिरता चला गया। इस बीच खालिस्तान की मांग को लेकर हिंसक आंदोलन शुरू हुआ। जरनैल सिंह भिंडरावाला इस आंदोलन का चेहरा था। खालिस्तान के नाम पर छिड़ी खूनी जंग में सैकड़ों निर्दोष लोगों की जान जा रही थी। पानी सिर से ऊपर गुजर रहा था। भिंडरावाले और उसके हथियारबंद समर्थकों ने सिखों के सबसे पवित्र स्थान अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में किलेबंदी कर ली थी। आखिरकार सेना ने आपरेशन ब्लू स्टार चलाया जो भिंडरावाले की मौत के साथ खत्म हुआ। लेकिन ऑपरेशन ब्लू स्टार ने भारतीय राजनीति पर गहरा असर डाला। खासतौर पर सिख समुदाय के एक हिस्से में अलगाव की भावना बढ़ी। आतंकवाद की आग बुझने की बजाय भड़क उठी। तब कोई नहीं जानता था कि इस आग में इंदिरा का जीवन भी होम हो जाएगा। इंदिरा गांधी ने 30 अक्टूबर 1984 की शाम उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर में एक भाषण में कहा, ‘मैं जिंदा रहूंगी या मरूंगी… मुझे इसकी परवाह नहीं। जब तक मेरी सांस में सांस है… मैं देश की सेवा करती रहूंगी और अगर मेरे जीवन का अंत हुआ तो मेरे खून की एक.एक बूंद देश को मजबूत करने के काम आएगी’। उन्हें सुनने के लिए हजारों लोग जुटे थे लेकिन किसी को अहसास नहीं था कि ये आशंका इतनी जल्द सच हो जाएगी। इससे पहले खतरे को देखते हुए सिख अंगरक्षकों को हटाने की सलाह वो ठुकरा चुकी थीं।
आखिर वही हुआ जिसका डर था। 31 अक्टूबर की सुबह इंदिरा के सरकारी आवास 1, सफदरजंग रोड पर उनके ही दो अंगरक्षकों बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने उन्हें गोलियों से भून दिया। बुरी तरह जख्मी इंदिरा को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ले जाया गया लेकिन दोपहर तक ये साफ हो गया कि इंदिरा की आत्मा का पंछी पिंजरा तोड़कर उड़ गया है। देश में हाहाकार मच गया। उनके शव को अंतिम दर्शन के लिए तीनमूर्ति भवन ले जाया गया और तीसरे दिन उनकी शवयात्रा शुरू हुई तो हर तरफ आंसुओं का सैलाब था। सात किलोमीटर दूर यमुना के किनारे उनका अंतिम संस्कार हुआ जहां दुनिया भर के तमाम राष्ट्राध्यक्ष भारत की इस लौह महिला को श्रध्दांजलि देने के लिए मौजूद थे। जहां उनकी चिता जली वो अब शक्तिस्थल कहलाता है। 25 साल बाद भी हर संकट के समय देश को याद आता है कि कभी भारत में एक शक्ति मौजूद थी जिसका नाम था इंदिरा गांधी।
इंदिरा गांधी अनुशासन के साथ कभी कोई समझौता नहीं करती थीं। घर की सजावट से लेकर रिश्तों की बनवाट तक हर चीज को वे पाबंदी के साथ दुरुस्त रखना चाहती थीं। ये शायद देश को अपने लिहाज से दुरुस्त करने की ख्वाहिश ही थी जो उन्हें इमरजेंसी लगाने की राह पर ले गई।